विचार

जैसा कि मैं हूँ

जैसा कि मैं हू
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जिसके शरीर से दुर्गंध आती हो, उसे सुगंध छिड़कने की जरूरत पड़ती है और जिसका शरीर कुरूप हो, उसे सुंदर दिखाई पड़ने के लिए चेष्टा करनी पड़ती है और जो भीतर दुखी है, उसे हंसी सीखनी पड़ती है और जिसके भीतर आंसू भरे हैं, उसे मुस्कुराहट लानी पड़ती है और जो भीतर कांटे ही कांटे से भरा है, उसे बाहर से फूल चिपकाने पड़ते हैं।

आदमी बिलकुल वैसा नहीं है जैसा दिखाई पड़ता है, उससे बिलकुल उलटा है। भीतर कुछ और है, बाहर कुछ और है। और यह बाहर जो हमने चिपका लिया है इससे दूसरे धोखे में आ जाते तो भी ठीक था, हम खुद ही धोखे में आ जाते हैं। यह जो बाहर हम दिखाई पड़ते हैं इससे दूसरे लोग धोखे में आते तो ठीक था, वह कोई बड़े आश्चर्य की बात थी, क्योंकि लोग बाहर से ही देखते हैं। लेकिन हम खुद ही धोखे में आ जाते हैं, क्योंकि हम भी दूसरों की आंखों में अपनी बनी हुई तस्वीर को अपना होना समझ लेते हैं। हम भी दूसरों के जरिए अपने को देखते हैं, कभी सीधा नहीं देखते – जैसा कि मैं हूं- जैसा कि मेरे भीतर मेरा वास्तविक होना है।
संकलन
अनुराग अग्रवाल
Astrologer, Numerologist & Vastu Expert
जय श्रीकृष्ण

Dainikyashonnati

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