अटल बिहारी बाजपेयी और राजनीति में शुचिता की अनिवार्यता, राजनीति का नैतिक संकट और अटल की प्रासंगिकता
जब सत्ता चरित्र से संचालित हो, तब लोकतंत्र जीवित रहता है
लेखक :
श्रीमती मीना बिसेन
जिला अध्यक्ष, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), सिवनी
आज का लोकतंत्र और अटल बिहारी बाजपेयी की प्रासंगिकता
आज का भारतीय लोकतंत्र जिस वैचारिक और नैतिक संक्रमण काल से गुजर रहा है, उसमें पंडित अटल बिहारी बाजपेयी का स्मरण केवल श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि आत्ममंथन की आवश्यकता है। राजनीति आज जिस तीव्र अविश्वास, कटुता, अवसरवाद और नैतिक क्षरण से ग्रस्त है, उसके उलट अटल बिहारी बाजपेयी का सार्वजनिक जीवन एक उजली रेखा की तरह दिखाई देता है। वे ऐसे राजनेता थे जिनके लिए राजनीति सत्ता प्राप्ति का माध्यम नहीं, बल्कि राष्ट्र सेवा का अनुशासित संकल्प थी। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व इस बात का प्रमाण है कि लोकतंत्र केवल संस्थाओं से नहीं, बल्कि चरित्र से जीवित रहता है।
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राजनीति सत्ता नहीं, बल्कि राष्ट्र सेवा का अनुशासित संकल्प
राजनीति में शुचिता की अवधारणा को आज अक्सर आदर्शवाद कहकर खारिज कर दिया जाता है, किंतु अटल बिहारी बाजपेयी का संपूर्ण जीवन इस भ्रांति को तोड़ता है। शुचिता का अर्थ केवल भ्रष्टाचार से दूरी नहीं है, बल्कि विचार, वाणी और व्यवहार में एकरूपता है। यह वह अवस्था है जहाँ सत्ता में रहते हुए भी संयम बना रहे, विरोध में रहते हुए भी राष्ट्रहित सर्वोपरि रहे और असहमति के बावजूद संवाद की मर्यादा अक्षुण्ण रहे। अटल जी की राजनीति इसी शुचिता की जीवंत मिसाल थी।
कवि हृदय और दृढ़ राजनेता का अद्भुत संगम
अटल बिहारी बाजपेयी का व्यक्तित्व एक कवि के कोमल हृदय और एक राजनेता के दृढ़ संकल्प का अद्भुत संगम था। उनकी भाषा में कभी कटुता नहीं रही, उनके शब्दों में आक्रोश नहीं बल्कि आत्मसंयम झलकता था। संसद हो या सार्वजनिक मंच, वे विरोध को भी शालीनता के साथ व्यक्त करते थे। यही कारण था कि वे केवल अपने दल के नेता नहीं, बल्कि समूचे संसद के सम्मानित व्यक्तित्व थे। विपक्ष के नेता भी उनके वक्तव्यों को ध्यान से सुनते थे, क्योंकि अटल की आलोचना में भी राष्ट्र के प्रति चिंता होती थी, व्यक्ति के प्रति द्वेष नहीं।
विपक्ष में रहते हुए भी राष्ट्रहित सर्वोपरि
लंबे समय तक विपक्ष में रहने के बावजूद अटल बिहारी बाजपेयी ने कभी राजनीति को राष्ट्रविरोध का मंच नहीं बनने दिया। आपातकाल के बाद का दौर हो या वैचारिक संघर्ष का समय, उन्होंने हमेशा संवैधानिक मर्यादाओं का पालन किया। 1977 में विदेश मंत्री के रूप में संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिंदी में भाषण देकर उन्होंने न केवल भारत की भाषायी अस्मिता को वैश्विक मंच पर प्रतिष्ठित किया, बल्कि यह भी सिद्ध किया कि राजनीतिक पद से अधिक महत्वपूर्ण राजनीतिक दृष्टि होती है। उनका यह कृत्य सत्ता प्रदर्शन नहीं, सांस्कृतिक आत्मविश्वास की अभिव्यक्ति था।
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प्रधानमंत्री के रूप में नैतिक और निर्णायक नेतृत्व
प्रधानमंत्री के रूप में अटल बिहारी बाजपेयी ने यह सिद्ध किया कि दृढ़ नेतृत्व और नैतिक नेतृत्व एक-दूसरे के विरोधी नहीं होते। पोखरण परमाणु परीक्षण के माध्यम से उन्होंने भारत की सामरिक क्षमता को विश्व के सामने स्पष्ट किया, वहीं लाहौर बस यात्रा के माध्यम से शांति के लिए जोखिम उठाने का साहस भी दिखाया। कारगिल युद्ध के समय उनका संयमित लेकिन निर्णायक नेतृत्व यह दर्शाता है कि राष्ट्रहित में कठोर निर्णय भी मर्यादा के भीतर रहकर लिए जा सकते हैं। सत्ता उनके लिए अधिकार नहीं, उत्तरदायित्व थी।
गठबंधन राजनीति को दी नई गरिमा
अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में गठबंधन राजनीति ने एक नई परिभाषा गढ़ी। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन उनके लिए संख्याबल का गणित नहीं, बल्कि सहमति और सम्मान का मंच था। उन्होंने सहयोगी दलों को केवल सत्ता का भागीदार नहीं, बल्कि निर्णय प्रक्रिया का सहभागी माना। मतभेदों को टकराव नहीं बनने दिया और असहमति को लोकतंत्र की शक्ति के रूप में स्वीकार किया। आज जब गठबंधन राजनीति प्रायः सौदेबाज़ी और दबाव की राजनीति में बदल जाती है, तब अटल का यह मॉडल और अधिक प्रासंगिक हो जाता है।
विचारधारा में दृढ़, व्यवहार में संवेदनशील
अटल जी वैचारिक रूप से दृढ़ थे, लेकिन मानवीय दृष्टि से संवेदनशील। वे विचारधारा से समझौता नहीं करते थे, पर व्यक्ति को कभी अपमानित नहीं करते थे। उनकी राजनीति में विरोधी भी सम्मान के पात्र होते थे। उन्होंने सत्ता का उपयोग कभी बदले की भावना से नहीं किया और न ही आलोचना से घबराकर लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर किया। उनका स्पष्ट विश्वास था कि सत्ता का उद्देश्य विरोध को दबाना नहीं, बल्कि लोकतंत्र को सशक्त करना है।
आज की राजनीति में अटल बिहारी बाजपेयी की सबसे अधिक कमी
आज की राजनीति में जब भाषा विषैली होती जा रही है,
असहमति को देशद्रोह की संज्ञा दी जाने लगी है और सत्ता ही अंतिम लक्ष्य बन गई है,
तब अटल बिहारी बाजपेयी की कमी सबसे अधिक महसूस होती है।
उनकी अनुपस्थिति केवल एक नेता की कमी नहीं है,
बल्कि राजनीति में संस्कार,
मर्यादा और शालीनता की कमी है।
उन्होंने यह दिखाया था कि –
राजनीति में रहते हुए भी व्यक्ति सभ्य, संवेदनशील और राष्ट्रनिष्ठ रह सकता है।
आने वाली पीढ़ियों के लिए जीवंत पाठ्यपुस्तक
आने वाली पीढ़ियों के लिए अटल बिहारी बाजपेयी का जीवन एक जीवंत पाठ्यपुस्तक है।
वे सिखाते हैं कि राजनीति में प्रवेश करते समय आत्मा को गिरवी नहीं रखना चाहिए,
असहमति रखते हुए भी मर्यादा नहीं छोड़नी चाहिए,
सत्ता मिलने पर विनम्र और सत्ता जाने पर गरिमामय रहना चाहिए।
यदि भारतीय लोकतंत्र को पुनः जनता का विश्वास अर्जित करना है, तो उसे अटल के मूल्यों की ओर लौटना ही होगा।
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अटल बिहारी बाजपेयी: राजनीति में शुचिता की आत्मा
पंडित अटल बिहारी बाजपेयी केवल भारत के पूर्व प्रधानमंत्री नहीं थे,
वे राजनीति में शुचिता के प्रतीक थे।
आज आवश्यकता इस बात की है कि –
उनके विचारों को केवल स्मृति आयोजनों और भाषणों तक सीमित न रखा जाए,
बल्कि उन्हें राजनीतिक व्यवहार में उतारा जाए।
क्योंकि जब राजनीति शुचिता खो देती है, तब लोकतंत्र अपनी आत्मा खो देता है—
और अटल बिहारी बाजपेयी उस आत्मा का नाम थे।
यह लेखक के निजी विचार हैं



